By Dr Sudhirendra Sharma - Excerpts here
१९८२ के बाद से, एक दर्जन से अधिक कार्य-बल, कार्य-समूह व उच्च-स्तरीय विशेषज्ञ पैनल पर्वतीय विलक्षणताओं से सम्बंधित रूपरेखा तैयार करते आये हैं। वन अनुसंधान से लेकर फसल बेहतरी तक और भूगर्भीय अध्ययनों से लेकर सुदूर संवेदन तक, देश के १२ पर्वतीय राज्यों में ३६ शोध संस्थान व २४ से अधिक विश्वविद्यालय हैं। इनके अतिरिक्त, हरेक राज्य की, स्थानीय स्तर पर विकास के लिए ज़रूरी संयोजन मुहैया कराने के लिए अपनी संस्थागत संगरचना है. प्रत्येक राज्य में सरकारी अनुदान से चल रहे औसत पाँच शोध संस्थान व विश्वविद्यालय हैं। इससे ज्यादा भला कोई क्या मांग सकता है।
पर, जैसाकि रिओ+१० द्वारा वहनीय पर्वतीय विकास के मूल्यांकन के निष्कर्ष में कहा गया है कि क्षेत्र में पर्यावरणीय संरक्षण, आर्थिक विकास व सामाजिक सुधार के स्तर पर कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं हुआ है। यह कहा गया है कि विभिन्न क्षेत्रों में व्यापक वित्तीय निवेश के बावज़ूद, समन्वय, नियोजन, क्षमता व कार्यन्वयन में कमी के वज़ह से परिणाम लोगों के जीवन और उनके परिवेश की गुणवत्ता में बेहतर फर्क लाने में असफल रहे हैं।
हिमालयी सन्दर्भ में, "समाधान-वाद" दृष्टिकोण को अब छोड़ देना चाहिए… बहु-हितग्राहिओं में विभिन्न समाजो-पर्यावरणीय विकास मोर्चों पर नेतृत्व कि कमी देखी गयी है। नीति निर्धारकों और विषय विशेषज्ञों को तो आत्म-मंथन करना ही है, साथ ही, नागर समाज को भी अपने संकीर्ण दायरों से ऊपर उठना होगा।
पूरे लेख के लिए देखें - http://chimalaya.org/2014/01/06/no-end-to-the-himalayan-blunder/
Since 1982, more than a dozen task forces, working groups and high level expert panels have drafted and redrafted blueprints for addressing the mountain peculiarities. From forest research to crop improvement and from geological studies to remote sensing, the Himalayan region has been home to some 36 research institutions and over 24 universities spread across some 12 mountain states in the country. In addition, each of the states has its own institutional architecture to provide the necessary link for developments at the local level.
With an average of five public-funded research institutions and universities in each state, the region could not have asked for more. Ironically, however, the Rio+20 assessment of Sustainable Mountain Development has concluded that there has not been any significant change in environmental protection, economic growth and social improvement in the region. It has been argued that despite huge financial investments across sectors, the results have been deficient in making a difference to the life of people and the quality of their environments due to lack of coordination, planning, capacity and implementation.
In the Himalayan context, the 'solutionism' perspective ought to be laid to rest.... It has been observed that there is missing or disconnected leadership among multiple stakeholders on various socio-environment development fronts. While the policy planners and subject specialists need to do some soul searching, the civil society has to get together in rising above its narrow confines.
For complete article - http://chimalaya.org/2014/01/06/no-end-to-the-himalayan-blunder/
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