Wednesday 30 April 2014

Expert Committee sees destructive role of hydel projects in Uttarakhand disaster

२०१३ के बरसात में उत्तराखंड ने अपने इतिहास की सर्वाधिक विध्वंसकारक त्रासदी झेलीं. स्थानीय नागरिक और चश्मदीद गवाह तो कह रहे ही थे; पर अब वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति ने भी उन शंकाओं पर मुहर लगा दी है कि राज्य में निर्माणाधीन जल-विद्युत परियोजनाओं ने आपदा को व्यापकता दी है और उसके प्रभावों को कई गुणा बढ़ाया है.

"संदर्प", जिसका बाँध एंड नदियों पर गहरा अध्ययन रहता है, ने विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट पर अपनी प्रतिक्रिया व टिप्पणी दी है, जिसे आप नीचे दिए गए लिंक पर देख सकते हैं.

Most people have been saying it, but now the "Expert Committee" that was set up by the Ministry of Forests and Environment, has confirmed that the role of hydel projects across the state has been destructive and worsened the impact of floods in the what has been termed as possibly the worst disaster ever in Uttarakhand.

SANDRP has uploaded the following on the report of the Expert Committee. Please click or copy to the browser -
http://sandrp.wordpress.com/2014/04/29/report-of-expert-committee-on-uttarakhand-flood-disaster-role-of-heps-welcome-recommendations/

Friday 31 January 2014

Corruption in relief

द्वारा प्रेम पंचोली

सरकारी राहत और आपदा से किस तरह लोग सामना कर रहे हैं उसके लिए चन्द्रापुरी गांव के 69 परिवारो की कहानी ही काफी है।
इनमें से 47 परिवार अनु॰जाति के हैं जिनमें से सात परिवार आज भी आपदा राहत के लिए मोहताज हैं। बताया गया कि यहां लोगो ने स्वयं सेवियो की मदद भी डर-डर की ली है ताकि उन्हे मिलने वाली सरकारी मदद प्रभावित ना हों। परन्तु सरकार द्वारा दी जाने वाली आवास हेतु सात लाख की मदद अब तक लोगो के पास नहीं पंहुची है। ग्रामीण दिनेष जोषी ने कहा कि आवास के पूर्णक्षति का मुआवजा उन्हे ही नसीब हुआ जिन्होने पटवारी को रू॰ 10 हजार की घूस पंहुचाई है। पटवारी सुन्दरलाल ने दिनेष जोषी से कई बार रू॰ 10 हजार की मांग की है कि वह उन्हे दो लाख रू॰ दिलवा देगा। ऐसा नहीं हो पाया तो पटवारी की गुस्तागी से दिनेष जोषी आज सरकारी राहत से वंचित हो गया है। 

इस तरह चन्द्रापुरी गांव के कुत्ता लाल, हर्षलाल, मंगलदेव, निलम देवी, कबूतरादेवी, अषाड़ी देवी, अमरलाल आदि अनु॰जाति के सात परिवारो के 17 लोग खुले आसमां के निचे सर्दभरी रातो को गुजार रहे है। ग्रामीणो ने सेवानिवृत प्रधानाध्यापक प्रेम सिंह के हवाले से कहा कि प्रभावितो की सर्वेक्षण रिपोर्ट स्थानीय पटवारी ने ग्रामीणो और तत्काल ग्राम प्रधान के बिना ही तैयार की है।

कुन्दनलाल अपनी एक पन्नचक्की (घराट) से रोजाना 5-8 किलो आटा पीसाई के बदले कमाता था। मंन्दाकिनी की बाढ से कुन्दनलाल का रोजगार समाप्त हो गया है। सरकार की नजर में ऐसे अतिसूक्ष्म उद्योग मुआवजा की श्रेणी में नहीं आये। आम आदमी जो इस पन्नचक्की में गेहूं पीसाता था और पीसाई के बदले रूपये नही आटा ही देता था वह सांस्कृतिक परंपरा भी बाढ की भेंट चढ गयी है। प्रहसन यह है कि क्या इस तरह के अतिसूक्ष्म उद्योग मुआवजा की श्रेणी में नही आते? जबकि दुकानो, होटलो के लिए सरकार का मुआवजा देने की घोषणा है।

पूरी रिपोर्ट के लिए देखें, "हालात-ए-आपदा: कभी था गुलजार अब है विराना"   - https://www.facebook.com/prem.pancholi.37/posts/626153020753793:0

By Prem Pancholi
Of the 69 families in Chandrapuri village, 47 who belong to the Scheduled Caste. Of these, seven families are still deprived of any relief. We were told here that people have been very hesitant taking relief from the civil societies so that it doesn't effect any help from the government that they might receive. Rs 7 lakhs that was promised for houses has not been given to the people. Dinesh Joshi said that only those who have bribed the patwari  with Rs 10,000. Sunderlal, the patwari, asked Joshi many time for bribe amount and promised his Rs 2 lakhs relief. But since Dinesh Joshi did not given, he has not received any help as yet.

Likewise, the families of Kutta Lal, Harshlal, Mangaldev, Neelam Devi, Kabutara Devi, Asarhi Devi, Amarlal, etc, are still outdoors in this bitter cold. Retired school principal Prem Singh informed that the local patwari prepared the Survey Report of the Affected without involving the local people or the immediate gram pradhan. 

Kundanlal used to earn 5-8 kg of wheat flour daily from his watermill. The mill was washed away in the Mandakini flood. In the view of the government, this micro-enterprise did not qualify for any compensation. Whereas the government has announced compensation for shops and hotels.

For complete report, please see -  - https://www.facebook.com/prem.pancholi.37/posts/626153020753793:0

Sunday 12 January 2014

274 critical landslide zones in 67 villages

By Seema Sharma, Times of India - Excerpts

भारतीय भूगर्भीय सर्वेक्षण ने जून २०१३ में राज्य में हुई आपदा पर अपनी रिपोर्ट में ६७ गांवों में २७४ गम्भीर रूप से भूक्षरित क्षेत्र चिन्हित किये हैं. ये हैं - रुद्रप्रयाग (२७ गांवों में ५४ क्षेत्र),  पिथोरागढ़  (३५ गांवों में ६३ क्षेत्र), उत्तरकाशी  (३ गांवों में ३५ क्षेत्र), चमोली  (२ गांवों में ५० क्षेत्र) व बागेश्वर  (७२ क्षेत्र, पर कोई उतना खतरनाक नहीं) जहाँ जान-माल का सर्वाधिक नुक्सान हुआ है।      

जी.एस.आई. के निदेशक वी.के. शर्मा  का कहना है, "यह देखा गया है कि मन्दाकिनी ने अपना रास्ता बदला है और अब वो दक्षिण में सरस्वती से जा मिली है।  मन्दाकिनी का मूल पथ, उत्तर की ओर १५ मीटर ऊँचे मलबे के ढेर से बाधित हुआ है, जिसे नियंत्रित या रासायनिक विस्फोट की मदद से हटाना होगा; अन्यथा अगली बरसात में इन दोनों नदियों का संग्रहित पानी घाटी और आसपास के इलाकों में तबाही मचाएगा।"

श्री शर्मा ने केदारनाथ मंदिर में १५० मीटर की परिधि में किसी भी निर्माण के खिलाफ सावधान किया है, जहाँ पहले करीब १५० दुकानें व होटल थे। उनका कहना है, "मंदिर के आसपास का मलबा मशीनों से नहीं हटाया जा सकता क्योंकि क्षेत्र पारिस्थितिकी व भूगर्भीय दृष्टि से अति संवेदनशील है। हमारे दल ने, भू विच्छेदन  राडार तकनिकज्ञी के ज़रिये केदारनाथ मंदिर की नींव के नीचे ७.५ मीटर की गहरायी पर दरारें पायी हैं।"

अखबार में छपी रिपोर्ट के लिए देखें - http://timesofindia.indiatimes.com/india/Channel-Mandakini-river-to-its-original-course-GSI/articleshow/28721142.cms
 
Geological Survey of India, in its report on the disaster of June 2013, has identified 274 critical landslide zones in 67 villages in Rudraprayag (54 zones in 27 villages), Pithoragarh (63 in 35 villages), Uttarkashi (35 in 3 villages), Chamol (50 in 2 villages)i and Bagheshwar (72 zones but not dangerous) districts which had suffered maximum damage to the life and property in the catastrophe.  

GSI director VK Sharma said, “It was seen that the Mandakini river changed its course and has now merged with Saraswati river in the south. The original course of Mandakini on the North side has got blocked with a 15 m high debris mound which will have to be removed with the help of controlled or chemical blasts. Otherwise the collective water volume of these two rivers can wreak havoc in the valley and the connecting area in the next monsoon.”

He cautioned against any construction within 150 meter of the Kedarnath temple, which earlier had almost 150 shops and hotels. "The debris cannot be removed mechanically as the region is seismically and ecologically very fragile. Our team has also spotted cracks 7.5 m deep under the foundation of Kedarnath temple by using ground penetrating radar technology."

Tuesday 7 January 2014

No end to the Himalayan blunder?

By Dr Sudhirendra Sharma - Excerpts here
१९८२ के बाद से, एक दर्जन से अधिक कार्य-बल, कार्य-समूह व उच्च-स्तरीय विशेषज्ञ पैनल पर्वतीय विलक्षणताओं से सम्बंधित रूपरेखा तैयार करते आये हैं। वन अनुसंधान से लेकर फसल बेहतरी तक और भूगर्भीय अध्ययनों से लेकर सुदूर संवेदन तक, देश के १२ पर्वतीय राज्यों में ३६ शोध संस्थान व २४ से अधिक विश्वविद्यालय हैं। इनके अतिरिक्त, हरेक राज्य की, स्थानीय स्तर पर विकास के लिए ज़रूरी संयोजन मुहैया कराने के लिए अपनी संस्थागत संगरचना है. प्रत्येक राज्य में सरकारी अनुदान से चल रहे औसत पाँच शोध संस्थान व विश्वविद्यालय हैं। इससे ज्यादा भला कोई क्या मांग सकता है।
पर, जैसाकि रिओ+१० द्वारा वहनीय पर्वतीय विकास के मूल्यांकन के निष्कर्ष में कहा गया है कि क्षेत्र में पर्यावरणीय संरक्षण, आर्थिक विकास व सामाजिक सुधार के स्तर पर कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं हुआ है। यह कहा गया है कि विभिन्न क्षेत्रों में व्यापक वित्तीय निवेश के बावज़ूद, समन्वय, नियोजन, क्षमता व कार्यन्वयन में कमी के वज़ह से परिणाम लोगों के जीवन और उनके परिवेश की गुणवत्ता में बेहतर फर्क लाने में असफल रहे हैं।   
हिमालयी सन्दर्भ में, "समाधान-वाद" दृष्टिकोण को अब छोड़ देना चाहिए… बहु-हितग्राहिओं में विभिन्न समाजो-पर्यावरणीय विकास मोर्चों पर नेतृत्व कि कमी देखी गयी है।  नीति निर्धारकों और विषय विशेषज्ञों को तो आत्म-मंथन करना ही है, साथ ही, नागर समाज को भी अपने संकीर्ण दायरों से ऊपर उठना होगा। 
पूरे लेख के लिए देखें http://chimalaya.org/2014/01/06/no-end-to-the-himalayan-blunder/
Since 1982, more than a dozen task forces, working groups and high level expert panels have drafted and redrafted blueprints for addressing the mountain peculiarities. From forest research to crop improvement and from geological studies to remote sensing, the Himalayan region has been home to some 36 research institutions and over 24 universities spread across some 12 mountain states in the country. In addition, each of the states has its own institutional architecture to provide the necessary link for developments at the local level.
With an average of five public-funded research institutions and universities in each state, the region could not have asked for more.  Ironically, however, the Rio+20 assessment of Sustainable Mountain Development has concluded that there has not been any significant change in environmental protection, economic growth and social improvement in the region. It has been argued that despite huge financial investments across sectors, the results have been deficient in making a difference to the life of people and the quality of their environments due to lack of coordination, planning, capacity and implementation. 
In the Himalayan context, the 'solutionism' perspective ought to be laid to rest.... It has been observed that there is missing or disconnected leadership among multiple stakeholders on various socio-environment development fronts. While the policy planners and subject specialists need to do some soul searching, the civil society has to get together in rising above its narrow confines.
For complete article - http://chimalaya.org/2014/01/06/no-end-to-the-himalayan-blunder/

Saturday 4 January 2014

प्रभावित अभी भी गौशालाओं में Victims still living in cowsheds

Taken from 'Flood Victims living in cow sheds' - Kavita Upadhyay, The Hindu, 31.12.2013

चन्द्रापुरी गाँव (ज़िला रुद्रप्रयाग) में जून कि आपदा में, मन्दाकिनी में आयी बाढ़ में ५७ घर ज़मींदोज़ हो गए थे. आज, छः महीने बाद भी, कई प्रभावित लोग गौशालाओं या टेंट में किसी तरह रह रहे हैं. कुंदन लाल और उसके परिवार के सात सदस्य दो टेंटों में रह रहे हैं. त्रासदी के बाद से वे अब तक पांच गाँवों में, कभी यहाँ, कभी वहाँ भटक चुके हैं.

उत्तराखंड त्रासदी में ख़त्म हुए ३१०० घरों में से २४१० गाँव इलाकों में थे. मुख्य मंत्री विजय बहुगुणा ने घोषणा की थी कि जाड़ों के आने से पहले, आपदा प्रभावित लोग व्यक्तिगत घरों में चले जायेंगे, लेकिन अभी तक राज्य के किसी भी आपदा-प्रभावित इलाके में इस सम्बन्ध में कोई भी काम नहीं हुआ है.

चन्द्रापुरी से १५ किमी केदारनाथ की ओर सिमी गाँव  में ज़मीन धँस रही है.

In Chandrapuri village (Rudraprayag district), 57 houses got destroyed from the gush that entered the valley and within a few hours the space earlier occupied by residential buildings got bulldozed over by the Mandakini river. More than six months after the disaster, many villagers reside in cow sheds and a few others in tents. Kundan Lal and his seven other family members live in two tents. The family has rotated between five villages post-disaster.

Of the 3100 buildings that were destroyed across the state in mid-June deluge, 2410 are in rural areas. Chief Minister Vijay Bahuguna had earlier announced that the disaster-affected would be shifted to individual residences before winter sets in but not much work regarding housing can be spotted in any of the disaster-hit areas across the state.

15 km from Chandrapuri towards Kedarnath, in Simi village, land is sinking as a result of the mid-June disaster.

Friday 3 January 2014

उत्तराखंड में विकास स्थानीय लोगों के हित में नहीं Uttarakhand development model does not benefit the locals

Excerpts from an article in Economic and Political Weekly; Vol - XLIX, No.1; 4 Jan 2014 
By M Blasubramanian and PJ Dilip Kumar

यह उत्तराखंड आपदा मे मरे लोगों की स्मृति के प्रति अन्याय होगा कि हम उस आपदा को प्रकृति-जनक कहें। पर हमे उसे खतरे कि घंटी और अपने विकास मॉडल पर पुनर्विचार करने का स्पष्ट संकेत मानना चाहिए। .... पहाड़ों में विकास की एक समस्या यह है कि राज्य सरकारें जो संगरचनात्मक ढांचा चाहती हैं वो मैदानी लोगों के हित में ज्यादा होता है और स्वयं पहाड़ी लोगों के हित में कम..... हमारी आर्थिकी अब पूँजी के भूखे और संसाधनों को निचोड़ते तंत्र-चालित है जो अधिकाधिक ऊर्जा का उपभोग करते हैं जो अंतत: हमारे समाज को ही खोखला बना दे रही है.… केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण   व उत्तराखंड ऊर्जा विभाग ने राज्य में नदियों की जल-विद्युत् क्षमता ९००० मेगावाट आंकी है और उन पर करीब ७० परियोजनाएं नियोजित की हैं. इनको बनाने में नदियों का स्वरुप बदल जायेगा और भागीरथी ८०% और अलकनंदा ६५% तक प्रभावित होगी। लगभग ९०% अन्य सहायक नदियां भी प्रभावित हो सकती है.  २०१३ में उत्तराखंड जल विद्युत् निगम को रु ७७ करोड़ का नुक्सान हुआ और रु ५० करोड़ घाटा ऊर्जा उत्पादन में.

पूरे लेख के लिए देखें -    http://www.epw.in/notes/climate-change-uttarakhand-and-world-banks-message.html

Coming back to the Uttarakhand disaster, it would be unfair and unkind to the memory of those who perished there due to no fault of theirs to call it the wrath of nature. But it has to be taken as a warning and a clear signal to reconsider our development model

.... The country’s planners need to sit down with environmentalists and conservationists, and reformulate our developmental agenda from the bottom up.... One of the problems with development of the hills is that most of the infrastructure that state governments want is for the benefit of people from the plains, and not so much for the hill people themselves

....Our economy is now powered by a few capital-hungry, resource-guzzling sectors that are increasing energy consumption and making cities and villages unlivable, gradually corroding our very society and polity

....The Central Electricity Authority and the Uttarakhand power department have estimated the hydroelectric potential of rivers in the state at some 9,000 megawatts and planned 70-odd projects on their tributaries. In building these projects, key tributaries would be modified through diversion into tunnels or reservoirs, and 80% of the Bhagirathi and 65% of the Alaknanda could be affected. As much as 90% of the other smaller tributaries could be affected. The state hydel power development corporation, the Uttarakhand Jal Vidyut Nigam Ltd (UJVNL), suffered a loss of Rs 77 crore in 2013, in addition to a loss of Rs 50 crore in power generation. 

For full article, see http://www.epw.in/notes/climate-change-uttarakhand-and-world-banks-message.html

Tuesday 24 December 2013

उत्तराखंड में 1200 टन सेब और आलू सड़ रहे : 1200 tons of apples and potatoes rot in Uttarkhand

Seema Sharma, Times of India, 25.12.2013 - Excerpts

आपदा प्रभावित क्षेत्रों में करीब १२०० टन सेब और आलू सड़ रहा है क्योंकि सडकों कि हालत अभी भी खराब होने से उत्पादन को बाज़ार तक नहीं लाया जा सका.

गढ़वाल मंडल विकास निगम के प्रबंधक प्रताप शाह के अनुसार, "अगस्त में सरकार द्वारा हमें दिये गए निर्देश के अनुसार उत्तरकाशी, टिहरी, पौड़ी, चमोली, रुद्रप्रयाग और चकरौता के किसानों की आजीविका में सहयोग के मद्देनज़र हमने उनसे न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सेब रु ३० प्रति किलो और आलू रु १५ प्रति किलो ख़रीदा।  हमने माल इकठ्ठा करने के लिए बड़ी तादाद में लोग लगाये और माल को खाली घरों में स्टॉक भी कर के रखा. पर अधिकांश केस में माल को सडकों की खराब स्थिति की वजह से बाज़ार तक पहुँचाना मुश्किल हुआ."  

उन्होंने कहा कि  घोड़े और खच्चरों से माल ले जाना अव्यवहारिक और महंगा भी पड़ता।  निगम ने कहीं-कहीं गाड़ियां किराये पे ली पर वे भी महंगी पड़ी क्योंकि ड्राईवर लोगो ने खराब रास्तों पर गाड़ी ले जाने के लिए बहुत ज़यादा पैसे मांगे।  ऐसी स्थिति में अधिकांश माल खराब हो गया है, और जो बचा, वो भी बिक्री लायक नहीं है. 

Around 1200 tons of apples and potatoes have rotted in areas affected by the June flash floods in Uttarakhand as the Garhwal Mandal Vikas Nigam (GMVN) could not move them to the markets due to poor connectivity of roads. Many roads are still not in a passable state in the region.  

GMVN's general manager of marketing Pratap Shah said, "GMVN had no option but to comply with the Government Order issued in August this year where we were asked to buy the apple at the minimum support price of Rs 30 and potato at Rs 15 per kg from the farmers in Uttarkashi, Tehri, Pauri, Chamoli, Rudraprayag and Chakrata districts to support farmers and protect the produce. We employed a large workforce to collect the produce and stock them up in vacant houses. But it became difficult to transport it to markets in most cases because of bad roads." 

He said that the alternate option of carrying the stock on mules and horses was unviable and very expensive. In some cases they hired vehicles but that proved expensive as drivers quoted higher prices to navigate broken roads. As a result most of the stock perished after lying piled up for months together and the remaining one is not saleable either.